भारत में योग की शुरुवात
भारतवर्ष में योग की शुरुवात की बात की जाए तो आपको जान कर आश्चर्य होगा की योग का इतिहास सदियों पुराना है, भारत में योग का इतिहास उतना ही पुरातन है जितना हड़प्पा कालीन सभ्यता का। भगवान शिव को योग का सबसे पुराना गुरु माना जाता है। इससे हमें यह ज्ञात होता है कि योग का इतिहास भारत में पौराणिक काल से चली आ रही है।
महर्षि पतंजलि का योगसूत्र
योग दर्शन के संस्थापक का श्रेय महर्षि पतंजलि जी को जाता है, उन्होंने योग दर्शन का मूल ग्रंथ योगसूत्र प्रतिपादित किया।
महर्षि पतंजलि के योग दर्शन का उद्देश्य
महर्षि पतंजलि के योग दर्शन का उद्देश्य मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति करने का व्यवहारिक मार्ग बताता है। योग दर्शन में योग का अर्थ आत्मा का प्रकृति से वियोग है, अर्थात आत्मा का प्रकृति से अलग होना।
मोक्ष क्या है ?
महर्षि पतंजलि के अनुसार योग
महर्षि पतंजलि के योगसूत्र के अनुसार "योगश्चित वृत्ति निरोधः"
अर्थात चित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है। यहाँ चित्त का अर्थ - बुद्धि, मन, अहँकार से है, और वृत्तियाँ का अर्थ - प्रमा, विकल्प, निद्रा, स्मृतिः से है इसका निरोध ही योग है। महर्षि पतंजलि ने अपने अष्टांगिक योग में पंचक्लेश अर्थात पांच क्लेश को दूर करने का उपाय बताया है।
योग के अनुसार पंचक्लेश
- अविद्या (मिथ्या रूपी ज्ञान)
- अस्मिता (पुरुष और मन को एक मानना)
- राग (आसक्ति)
- द्वेष (घृणा)
- अभिनिवेश (मृत्यु का भय)
क्लेश क्यूँ होता है ?
क्लेश अविवेकी ज्ञान के कारण उत्पन्न होता है। पुरुष प्रकृति के विकारों से अपने भिन्नता को नहीं समझ पता जिसका परिणाम यह होता है कि जीवन मरण चक्र में फंस जाता है।
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महर्षि पतंजलि का अष्टांगिक योग
- यम
- नियम
- आसन
- प्राणायाम
- प्रत्याहार
- धारणा
- ध्यान
- समाधि
1. यम
यम का तात्पर्य नैतिक आचार संहिता अर्थात शरीर, मन, वाणी का संयम है। इसके अनुसार पांच अनुशासन आते है। "अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः"
अर्थात अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रम्हचर्य, अपरिग्रह यम है।
- सत्य (मिथ्यावचनो का त्याग)
- अहिंसा (हिंसा का परित्याग)
- अस्तेय (चोरी न करना, वास्तविक हक़ रखना)
- ब्रम्हचर्य (मन,वचन व काया से समस्त इन्द्रियों का संयम)
- अपरिग्रह (अत्यधिक ग्रहण न करना)
2. नियम
आचरण की पवित्रता तथा आतंरिक जीवन का अनुशासन के लिए पांच नियम है, इनमे शौच, संतोष, तप, स्व अध्याय, ईश्वर प्राणिधान शामिल है।
"शौचसंतोषतपः स्वाध्यायेश्वर प्राणिधानानि नियमाः"
अर्थात शौच, संतोष, तप, स्व-अध्याय, ईश्वर प्राणिधान नियम है।
- शौच :- शरीर, वातावरण, निवास स्थान की स्वछता के अलावा शौच मानसिक स्वछता की भावना उत्पन्न करता है।
- संतोष :- वर्तमान में हमें जो भी कुछ प्राप्त है उसमे प्रसन्नता व आनंद का अनुभव करना ही संयम है।
- तप :- बेहतर अवस्था की प्राप्ति के लिए व्यक्तित्व के अशुद्धियों को जलाना ही तप कहलाता है।
- स्व अध्याय :- आत्म अध्ययन या स्वयं के व्यक्तित्व का अध्ययन ही स्व-अध्याय कहलाता है।
- ईश्वर प्राणिधान :- उच्चतर सत्ता या ईश्वर में विश्वास रखना उसे मानना ही ईश्वर प्रणिधान है।
3. आसन
अर्थात स्थिर रह कर कुछ घंटे बैठने की क्षमता बढ़ाने का अभ्यास तथा सुख से बैठना ही आसन है। शरीर का सयम ही आसान है। इसका उद्देश्य शारीरिक अंगो और नस नाड़ियों का ऐसी स्थिति में लाना है जिससे इनके दोष को निकाल कर कार्य क्षमता में वृद्धि हो सके। अतः इसका सम्बन्ध विशेष शारीरिक स्थिति से है। आसन कई प्रकार के होते है जैसे सिद्धासन, समासन, सुखासन, पद्मासन, वज्रासन, मृगासन आदि। आसनो से अनेक शारीरिक, मानसिक, अध्यात्मिक लाभ प्राप्त होते है।
4. प्राणायाम
प्राणायाम का अर्थ है प्राण शक्ति के क्षेत्र में विस्तार। योगसूत्र के अनुसार प्राण एक स्वतंत्र तत्व है। प्राणायाम साँस को खींचकर अंदर रोके रहने और बाहर निकालने की एक विशेष क्रिया पद्धति है। इससे स्वास्थ्य, जीवन, स्फूर्ति, मानसिक क्षमता का विकास होता है। प्राणायाम की प्रक्रिया में चार अंग होते है।
- पूरक :- प्राण वायु को भीतर खींचने की प्रक्रिया पूरक कहलाती है।
- अन्तः कुम्भक :- खींची गयी प्राण वायु को भीतर रोक कर रखना अन्तः कुंभक है।
- रेचक :- श्वास को बाहर छोड़ने की क्रिया रेचक कहलाती है।
- बाह्य कुम्भक :- छोड़ी गयी श्वास की अवस्था में निः श्वास अवस्था में रुकना बाह्य कुंभक कहलाता है।
5. प्रत्याहार
प्रत्याहार का अर्थ है इन्द्रियों को बाह्य विषयो से हटाना। आँख, कान, आदि इन्द्रिया अपने-अपने विषयों की ओर स्वभावतः भागती है, उनको वहाँ से रोकना और इष्ट साधना में लगाना प्रत्याहार है। इसका तात्पर्य यह है कि अपने शरीर के इन्द्रियों को प्रकृति रूपी संसार से अलग करना और उन पर काबू पाने से है।
6. धारणा
धारणा का अर्थ मन को एक बिंदु पर एकाग्र करना होता है। धारणा लिए प्रतीकों के रूप में अंदर नाभिचक्र, हृदय आदि तथा बाह्य सूर्य, चंद्रमा, देव प्रतिमा, नदी आदि प्रतीकों का उपयोग किया जाता है। संसार के किसी भी वस्तु विशेष या चिन्ह या ॐ आदि पर मन को केंद्रित करना ही धारणा की विधि है।
7. ध्यान
महर्षि पतंजलि के अनुसार ध्यान का अर्थ है चिंतन को एक ही धारा प्रवाह में बहने देना। किसी एक ही लक्ष्य पर कुछ समय तक विचार करना ही ध्यान लगाना है। धारणा की विधि से जिस केंद्र बिंदु पर एकाग्रता बनी हुई है उस पर गहरा चिंतन मनन करना ही ध्यान की अवस्था है।
8. समाधि
समाधि ध्यान की पूर्ण अवस्था है। जब किसी बात पर निर्विकल्प रूप से चित्त जम जाता है, उस अवस्था को समाधि कहा जाता है। इस स्थिति में विकारी मन अपनी चंचलता को छोड़कर एक गाढ़ी निद्रा में चला जाता है। समाधि की अवस्था में चेतना तथा चित्त वृत्तियों का लोप हो जाता है।
योग का महत्व आज के परिवेश में क्या है ?
महर्षि पतंजलि जी के योगसूत्र तथा अष्टांगिक योग में जो बाते कही गयी है वो आज भी सत्य साबित होती है। उनके योग सूत्र को भारत ने पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया है, योग तथा नेचुरोपैथी से आज अनेक गंभीर बीमारियां भी दूर हो रही है, लोगो का स्वास्थ्य, जीवनशैली को सुधारने में योग एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिसके कारण आज देश-विदेश में योग साधना को ख्याति प्राप्त हो रही है।
भारत में व्यापक रूप से योग का प्रचार प्रसार स्वामी बाबा रामदेव जी एवं योग गुरुओं ने किया है। हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी व योगाचार्यो की मदद से सयुंक्त राष्ट्र संघ में योग दिवस मनाने का सुझाव दिया जिसके चलते 21 जून को विश्व योग दिवस मनाया जा रहा है जिससे विदेशों ने भी योग का महत्व को माना है जिससे भारत की विश्व पटल पर एक अलग पहचान बनी है।
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Article by - VIVEK