प्रश्न - आचार्य शंकर के अनुसार "माया" के स्वरूप की विवेचना
कीजिए।
Que. - Discuss the Nature of “Maya” according to acharya
Shankara.
CGPSC Mains 2019
प्रश्न - आचार्य शंकर के अनुसार "ब्रह्म" के स्वरूप की विवेचना
कीजिए।
Que. - Discuss the nature of “Brahma” according to acharya Shankara.
CGPSC Mains 2019
आचार्य शंकराचार्य
शंकराचार्य जी का जन्म सन् 788 ई. में केरल के कलांदी जिले में
बैसाख माह में हुआ था। आदि शकंराचार्य एक महान दार्शनिक थे, जिन्होंने सबसे
महत्वपूर्ण अद्वैतवाद का प्रतिपादन किया, इसके साथ साथ ही माया,
ब्रह्मतत्व आदि के विषय में अपने विचार रखे।
उन्होंने अद्वैतवाद व अपने विचारों के प्रचार प्रसार के लिए मठों का निर्माण
कराया।
1. शारदा पीठ - कर्नाटक
2. ज्योर्तिमठ - उत्तराखण्ड
3. द्वारका पीठ - गुजरात
4. गोवर्धन पीठ - उड़ीसा
अद्वैतवाद
आचार्य शंकर ने ब्रह्मसूत्र की व्याख्या करते हुए वेदांत को अद्वैवतवाद का
स्वरूप प्रदान किया है। ब्रह्म तथा जीव दो नही अपितु एक ही
है। यही अद्वैतवाद का सिद्धान्त है।
शंकर का “माया”
शंकर के अद्वैतवाद में माया का विशिष्ट स्थान है। माया ईश्वर की
शक्ति है, इसके द्वारा वह इस संसार में जीव जगत की सृष्टि करता है।
शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र सत् है। माया के दो कार्य है,
जिसे हम उसे उसकी शक्ति के रूप में देखते है -
- आवरण
- विक्षेप
अपने आवरण शक्ति के द्वारा माया ब्रह्म के स्वरूप को ढ़क लेती है।
तत्पश्चात् माया अपने विक्षेप शक्ति के द्वारा जगत को ब्रह्मा के ऊपर
विक्षेपित कर देती है।
माया की विशेषताएँ -
- माया अचेतन है; अर्थात् जड़ रूप में विद्यमान है।
- माया त्रिगुणात्मक है। अर्थात वह सत्, रज् और तम् नामक तीन गुणों से बना है।
- माया सगुण ब्रह्म की शक्ति है।
शंकर का “मोक्ष”
शंकर के अनुसार अविद्या या अज्ञान से आत्मा को शुद्ध शरीरधारी
व्यक्ति बनाने के लिए बाध्य होना पड़ता है क्योंकि यह बन्धन रूपी
आत्मा है जो जगत में विचरण करता है। इस अज्ञानता का निवारण
ब्रह्म ज्ञान से होता है। ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए
शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि अनिवार्य होती है। इसके लिए चार साधनों को
अपनाना पड़ता है, जिसे “साधन चतुष्ट्य” कहा जाता है। इसके
अर्न्तगत निम्न साधन है -
- नित्य व अनित्य में अंतर का ज्ञान होना चाहिए।
- इहलोक व परलोक में भोग से विराग होना चाहिए।
- ज्ञान प्राप्ति के लिए साधक को मन का संयम, इन्द्रियों का दमन, शास्त्रों में श्रद्धा होना चाहिए।
- मोक्ष प्राप्ति करने की प्रबल आकांक्षा होनी चाहिए।
- “साधन चतुष्ट्य” को पूरा करने के बाद व्यक्ति को योग्य गुरू के पास जाना चाहिए और गुरू से शास्त्र निहित कथनों जिसमें ईश्वर, आत्मा, जगत के वास्तविक स्वरूप हो उसे श्रवण करना आवश्यक है।
- तत्पश्चात् साधक को उस विषय में चिंतन मनन करना चाहिए।
- आत्मचिंतन के बाद साधक को ब्रह्म साक्षात्कार या आत्मसाक्षात्कार हो जाता है, इसे ही “तत्वज्ञान” कहा गया है।
- साधक ब्रह्म तत्वज्ञान की अनुभूति से मोक्ष की स्थिति को प्राप्त कर लेता है।
शंकर का ब्रह्म सिद्धान्त
शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत का केन्द्रीय तत्व
“ब्रह्म” है। शंकर के अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है।
जगत मिथ्या है अर्थात् जीव मूलतः ब्रह्म ही है, उससे भिन्न नहीं
है। यहाँ सत् के सन्दर्भ में यह कहा गया है कि
त्रिकालबाधित सत् अर्थात् किसी भी काल में बाधा या उसका
खंडन ना हो, यह सत् है।
आदि गुरू शंकराचार्य के अनुसार सत् कितने प्रकार के होते है?
शंकर के अनुसार तीन प्रकार के सत् होते है -
1. प्रतिभासिक सत् - प्रतिभासिक सत् नामक विषय कुछ देर के
लिए प्रकट होते है। उदाहरण के लिए -
- अंधेरे में कोई रस्सी सर्प के समान अनुभव होता है।
- स्वपन जो हमें कुछ पल के लिए सत्य के समान अनुभव प्रतीत होता है।इसी प्रकार अन्य कई उदाहरण हो सकते है।
2. व्यावहारिक सत् - वे विषय जो स्वभाविक जागृत अवस्था में
प्रकट होते हैं। जैसे रस्सी को रस्सी के रूप में सत् समझना।
अर्थात् जो वस्तु जैसी है उसी प्रकार उसे समझना।
3. पारमार्थिक सत् - इस व्यवहार का खंडन परमार्थ के स्तर पर
होता है, क्योंकि परमार्थ अखंड स्वरूप है इसका खंडन कभी भी संभव
नहीं है।
आदि गुरू शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म के कितने रूप है?
शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म के दो रूप हैं -
- निर्गुण ब्रह्म
- सगुण ब्रह्म
- निर्गुण ब्रह्म - उपनिषदों में जिसे “पर ब्रह्म” कहा गया है उसे ही यहाँ निर्गुण ब्रह्म की संज्ञा दी गई है। ब्रह्म अपनी मौलिकता से निर्गुण निराकार है।
- सगुण ब्रह्म - उपनिषदों में जिसे “अपर ब्रह्म” कहा गया है, उसे यहाँ सगुण ब्रह्म कहा गया है। जब ब्रह्म माया रूप में होता है, तब ईश्वर का रूप धारण करता है। यह ईश्वर सगुण ब्रह्म है।
सगुण ब्रह्म व निर्गुण ब्रह्म एक दूसरे से पृथक दो सत्ताएँ नहीं
है, बल्कि एक ही सत्ता के दो रूप है।
शंकर के जगत विचार की व्याख्या
शंकराचार्य के अनुसार
ब्रह्म ही एक मात्र सत् है, जगत मिथ्या है, जीव मूलतः ब्रह्म
में ही है उससे भिन्न नहीं है।
जिस प्रकार स्वप्न झूठे होते है तथा अँधेरे में रस्सी को देखकर
साँप का भ्रम होता है उसी प्रकार भ्रान्ति, अविद्या, अज्ञान के
कारण ही जीव इस मिथ्या रूपी संसार को सत्य मान बैठता है। वास्तव
में न कोई संसार की उत्पत्ति हुई है, और न प्रलय, न साधक, न कोई
मुमुक्षु। केवल ब्रह्म ही सत्य है और कुछ नही। अद्वैत मत के अनुसार
यह अंतरात्मा न कर्ता है, न भोगता है, न देखता है, न दिखाता है
अर्थात् यह निष्क्रिय है।
So friends how do you like this article!! tell us in our
comment section. Share our articles and notes with your family
and friends. For more such information follow -
Gyaan INside
Thank you for reading this Article
Have a nice day
Your Gyaan INside
Article by Vivek
Tags:
India related Facts